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जैसा कि सभी को विदित है कि श्रीमदभगवतगीता, प्रभु श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों का संग्रह है। जिस समय महाभारत का युद्ध होने ही वाला था उस समय अचानक ही अर्जुन, युद्ध को लेकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए।


किं अर्थात क्या, कर्तव्य अर्थात करूं और विमूढ़ अर्थात संशय ग्रस्त या कन्फ्यूज़्ड…


अर्जुन को समझ में नहीं आ रहा था कि वे युद्ध करें अथवा नहीं! ऐसे में श्रीकृष्ण की वाणी से उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उचित कर्म करने का उपदेश मिला।


ऐसे में कई बार लोगों के मन में यह शंका का उठना स्वभाविक ही है कि जब युद्ध सामने ही था तो ऐसे में भला क्या श्रीमद्भगवद्गीता, जिसमें 700 श्लोक कहे गए हैं, का वर्णन करना संभव था। इन 700 श्लोकों में 84 श्लोक अर्जुन के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के रूप में हैं।

इसके अतिरिक्त लोग इस बारे में भी प्रश्न करते हैं कि क्या गीता का यह ज्ञान, कृष्ण अर्जुन को पहले ही नहीं दे सकते थे।

सबसे पहले दूसरे प्रश्न का उत्तर कि क्या भगवान श्रीकृष्ण गीता के उपदेश, अर्जुन को पहले नहीं दे सकते थे? याद रखें कुछ सीख ऐसी होती हैं जो केवल सही समय पर ही दी जाती हैं और लेने वाला भी सही समय पर ही उसे सच्चे मन से पूरी तरह ग्रहण कर सकता है।


उदाहरण के तौर पर यदि किसी व्यक्ति को इस बात की शिक्षा दी जाने लगे कि भूकंप आने पर क्या करना है, कैसे बचाव करना है, क्या-क्या कदम उठाने हैं; और उस व्यक्ति को लगता है कि दूर-दूर तक भूकंप आने की कोई संभावना ही नहीं है। तो ऐसे में क्या व्यक्ति उस ज्ञान को सही प्रकार से ले पाएगा? समझ पाएगा?

और अपने भीतर आत्मसात या ग्रहण कर पाएगा?


पर यदि टीवी पर इस बात की घोषणा हो जाए कि आने वाले 24 घंटे में भूकंप आने की बहुत अधिक संभावना है, तो यदि अब यही शिक्षा, उसी व्यक्ति को दी जाए, तो ना केवल वह उसे ध्यान से सुनेगा, समझेगा और अगर कुछ समझ में नहीं आएगा तो उसके बारे में पूछेगा भी।

क्योंकि अब इस ज्ञान की उसे वास्तव में ज़रूरत है।


इसी प्रकार जो परिस्थिति अर्जुन के सामने थी अर्थात युद्ध क्षेत्र में शत्रु के रूप में अपनों का सामना करना; तो ऐसी शिक्षा ना तो पहले देने का कोई औचित्य ही था और ना ही अर्जुन उसे ग्रहण करने के बारे में गंभीर ही होता। क्योंकि अपने ही भाइयों और रिश्तेदारों पर अस्त्र शस्त्र चलाना, उस समय उसके लिए ऐसा सोचना मात्र भी हास्य का विषय होता।


पर अब जब परिस्थितियां आन ही पड़ी है तब उस समय कृष्ण को उन परिस्थितियों के अनुरूप उपदेश देना भी पड़ा और अर्जुन ने उसको भली-भांति सुना और समझा भी।


अर्जुन ने उसे अच्छी प्रकार समझा और अपने ह्रदय में उतारा। इस बात को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि अर्जुन ने प्रश्नों के रूप में 84 श्लोक कहे। तो अर्जुन केवल श्रोता मात्र ही नहीं थे अपितु कृष्ण के द्वारा कही गई हर बात को वह समझ भी रहे थे और अपने मन में उतारने से पहले यदि कोई संशय हो, तो उस संशय का निवारण भी करना चाह रहे थे।


क्योंकि जहां संशय हो, वहां विश्वास नहीं हो सकता और जिस बात पर विश्वास ना हो, उसका पालन भी सच्चे मन से नहीं किया जा सकता।


यहां इसे एक तरफा उपदेश ना समझ कर गुरु और शिष्य के मध्य उच्च स्तर का विचार विमर्श समझना अधिक उपयुक्त है।


कितना सुंदर दृश्य है। यहां शिष्य, बिना संशय के समाधान पाये, कुछ भी आंख मूंदकर अपनाने के लिए तैयार नहीं और गुरु उसकी हर समस्या का निवारण करने के लिए सहर्ष तत्पर हैं।


जैसे एक अच्छे विद्यार्थी को एक अच्छे गुरु की तलाश होती है, उसी प्रकार एक अच्छे गुरु को भी अच्छे शिष्य की तलाश होती है; जो उसके द्वारा दिए गए गए ज्ञान को ग्रहण करने योग्य हो।


गुरु का ज्ञान यदि बाल्टी भर हो और शिष्य का पात्र केवल एक लुटिया जितना हो, तो गुरु कैसे अपना सारा ज्ञान शिष्य को दे सकता है।


यहां, जहां एक ओर गुरु अपनी गुरुता से परिपूर्ण है वहीं दूसरी छोर पर शिष्य भी अपने शिष्यत्व से परिपूर्ण है। और इसी कारण इतने दिव्य ज्ञान का आदान-प्रदान हो सका।


अर्जुन यदि इतने प्रश्न नहीं करते, तो हो सकता है कि कृष्ण थोड़ा सा उपदेश देकर ही चुप हो जाते। अर्जुन का निरंतर प्रश्न करना इस बात का द्योतक़ था कि अर्जुन निश्चय ही उस अमूल्य शिक्षा को ग्रहण करने के लिए मानसिक रूप से तैयार थे बशर्ते उनको लेकर अर्जुन के मन में कोई संशय ना रहे।
इसीलिए श्रीकृष्ण ने यह ज्ञान उसी समय अर्जुन को प्रदान किया जब वह सबसे अधिक ग्रहण करने के लिए तत्पर थे।

और उस समय, उस ज्ञान के महत्व को समझते थे क्योंकि उस समय यह ज्ञान उनके जीवन मरण का प्रश्न बन गया था, जबकि इससे पहले ऐसी कोई भी परिस्थिति प्रकट नहीं हुई थी।


अब बात पहले प्रश्न के उत्तर की, कि क्या युद्ध सामने होते हुए भी इतने कम समय में इतना अधिक विचार-विमर्श होना संभव था? इसके लिए मैं अगली बार अपने विचार आपके साथ साझा करूंगा। धन्यवाद

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