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श्रीमद्भगवद्गीता : महाभारत में अर्जुन का पलायन या मानवता ?
महाभारत का युद्ध पूरे विश्व में धर्म और अधर्म के बीच के युद्ध के रूप में जाना जाता है। इस युद्ध के आरंभ होने से पहले पांडव सेना के मुख्य योद्धा अर्जुन के विषय में कहा जाता है कि वह युद्ध भूमि में, सामने शत्रु को देखकर हताश हो गए थे, डर गए थे और उनके हाथ पैर कांपने लगे थे। जिसके कारण भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें जो उपदेश दिए, वही श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में व्यक्त है। यहां पर यह प्रश्न उठता है कि क्या युद्ध के लिए प्रस्तुत ना होना अर्जुन का पलायनवाद यानी एस्केपिस्म (Escapism) है या उनका मानवतावाद।

 

यदि अर्जुन कायर होते हैं तो महाभारत से पहले होने वाले अनेकों युद्धों में भाग ही ना लेते। अगर वह कायर होते तो धनुर्विद्या सीखते ही नहीं। पर ऐसा नहीं है अर्जुन का युद्ध के लिए संकोच संभवत इस बात का प्रमाण है कि अर्जुन के भीतर योद्धा होने के साथ एक शुद्ध हृदय इंसान भी स्थित है। अर्जुन युद्ध के लिए नहीं इनकार करते बल्कि वे कहते हैं कि मैं अपनों के खिलाफ युद्ध कैसे कर सकता हूं। अगर मेरे सामने मेरे चाचा, ताऊ, मेरे गुरु, मेरे स्वजन है तो मैं उन पर बाण कैसे चला सकता हुँ?


इस बात को कुछ ऐसे भी समझा जा सकता है कि बहुत दक्ष शल्य चिकित्सक भी, कई बार अपने खुद के परिवार के लोगों के ऑपरेशन के समय अपने भीतर एक डर या असहजता महसूस करता है। उसने चाहे अब तक हजारों सफल ऑपरेशन कर लिए हों, फिर भी अपने प्रिय के लिए डर लगभग सभी को होता है।

 
पर यही डर रूपी प्रेम, समाज को एक बंधन में भी बांधे रखता है। इसलिए अर्जुन का संशय (Confusion) आसानी से समझा जा सकता है। अर्जुन युद्ध से नहीं बल्कि अपनों से युद्ध नहीं चाहते। अपने समय का माना हुआ धनुर्धर अर्जुन जो मन व मस्तिष्क दोनों से ही सदा केवल युद्ध के लिए ही तैयार रहा है युद्ध से पलायन तो नहीं कर सकता। रही बात ज्ञान की तो ज्ञान अर्जुन को भी बहुत था। उन्हें जिस प्रकार धनुर्विद्या में महारथ हासिल थी, उसी प्रकार वे अपने लोकधर्म (Social Behaviour) को भी समझते थे।

 
तो फिर यहां एक और प्रश्न उठता है कि जब अर्जुन जानते हैं कि धर्म क्या है, और जानते हैं कि सामने जो शत्रु खड़ा है वह भी उनका वध करने के लिए तैयार है, तो भी श्रीकृष्ण को उन्हें यह उपदेश क्यों देना पड़ा।

 
कहा जाता है एक्स्ट्राऑर्डिनरी सिचुएशन रिक्वायर् एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी एक्शन। (Extraordinary Situation Requires Extraordinary Action).

 
आमतौर पर जितने भी ज्ञानी महात्माओं व महापुरुषों ने प्रवचन या उपदेश दिए हैं, उसमें उन्होंने अपने सारे जीवन का अनुभव अपने शिष्यों को एक साथ प्रदान कर दिया है। जैसे किसी धनुर्धारी के तरकश में सारे तीर एक साथ रख दिए हों, जिससे वह अपने जीवन के समर में जब जैसी आवश्यकता हो उसके अनुरूप तीर चला सके।

 
पर लगभग सभी गुरुजनों के प्रवचन; शांत स्थान पर, शांत भाव से बैठे हुए भक्तों को, शांत जगह पर दिए गए हैं। यहाँ अर्जुन सामान्य स्थिति का सामना नहीं कर रहा। अगर युद्ध किसी गैर सेना और लोगों से होता तो अर्जुन को किंचित मात्र भी हिचक नहीं होती पर यहां अर्जुन के पास सारे तीर तो हैं, और वह सामने वाली सेना को अकेले ही नष्ट करने में सक्षम भी है, इस बात को भी वह अच्छी तरह जानता है।
परंतु सामने वाली सेना में, अपने सारे स्वजनों को देखकर वह असमंजस में पड़ जाता है कि यदि मैं तीर चलाऊं भी, किसी का वध करूं भी, तो भी किसी ना किसी तरह यह मेरे ही हृदय को चोट पहुंचाएगा.

 इस कारण से ही अर्जुन व्यथित और संशय से भरे हुए हैं। यानी अर्जुन के सामने यह एक्स्ट्राऑर्डिनरी या असामान्य परिस्थिति थी। एक्स्ट्राऑर्डिनरी सिचुएशन रिक्वायर्ड एक्स्ट्राऑर्डिनरी एक्शन, इसी बात को ध्यान में रखते हुए कृष्ण को उस समय के अनुरूप अर्जुन को यह ज्ञान देना पड़ा कि ऐसे समय में उसे कौन सा धर्म अपनाना चाहिए; योद्धा का धर्म या लोक व्यवहार व स्वजनों से आत्मीयता का धर्म।
अर्जुन के इसी संशय का रूप, हम सभी को अक्सर अपनी जिंदगी में देखने के लिए मिल जाता है जहां हम अपने आपको एक ऐसे दोराहे पर खड़े पाते हैं जहां हमें समझ नहीं आता कि क्या उचित है क्या अनुचित और क्या धर्म अनुरूप है और क्या अधर्म अनुरूप।

 
ऐसे में श्रीमद्भगवद्गीता ना केवल अर्जुन को बल्कि समस्त विश्व में, प्रत्येक व्यक्ति को इस दुविधा से निकलने का मार्ग बताती है।

 
इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता को किसी एक धर्म, संप्रदाय या देश से जुड़ा हुआ ना मानकर, एक ऐसा ग्रंथ माना गया है जो हर देश में, हर समय, हर व्यक्ति की, हर एक समस्या का निदान करने में सक्षम है। इसीलिए पूरे विश्व में श्रीमद्भगवद्गीता का अनुवाद किया गया है और दुनिया के महानतम दार्शनिकों ने गीता के महत्व को समझा और स्वीकारा है।

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