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Tree God Part 1

कहीं दूर एक गाँव था। गाँव के बाहर जंगल में था, एक छोटा सा पेड़ tree ।

कमजोर सा, छोटे-छोटे पत्तों leaves और टहनियों वाला। आस-पास के बड़े पेड़ शायद उसके हिस्से का पानी और भोजन भी खुद ही हड़प जाते होंगे, शायद इसीलिए वह ऐसा था।

गाँववाले हाल तो जंगल से कभी गुजरते ही नहीं थे पर जब कभी जंगल से गुजरते. उस पर एक हिकारत भरी दृष्टि डालकर कहते, “अरे! कैसा बेकार पेड़ है। न फल, न फूल, और तो और इतना घना भी नहीं कि किसी को छाया दे सके।”, “बेकार निकम्मा, नालायक, जंगल पर बोझ!”

चरवाहे जब कभी जंगल में बकरी चराने आते तो किसी घने पेड़ के नीचे सुस्ताते, किसी फलदार पेड़ से फल तोड़कर खाते पर अक्सर आते-जाते उस पेड़ पर एक-दो बेंत जमाकर जरूर निकलते।

पेड़ निरीह भाव से सब सुनता, सहता और सर झुका लेता।

समय कब-कहाँ सदा एक सा रहा है। सभी के जीवन में अच्छे और बुरे दोनों ही समय, आते जरूर हैं। चाहे थोड़े समय के लिये …चाहे ज्यादा समय के लिये…।

पेड़ tree का भी समय आया जब प्रकृति ने अपनी उदारता के द्वार पेड़ के लिये खोल दिये। कभी का छोटा सा कमज़ोर पेड़, अचानक ही कुछ समय में, घना और विशाल हो गया … आस-पास के बड़े पेड़ों से भी विशाल!

उस पेड़ की पत्तियाँ भी कुछ विशेष ही थीं, खूब मोटी और खूब चौड़ी।

गाँव, देश के जिस हिस्से में था वहाँ गर्मियाँ, गज़ब की पड़ती थीं।
ऐसी ही भीषण गर्मियों के समय एक दिन, गाँव का एक चरवाहा अचानक उधर आ निकला। उसने पेड़ को देखा तो हतप्रभ होकर देखता ही रह गया।

…इतना घना पेड़?? !!

गर्मी से राहत पाने के लिये, वह उस पेड़ की छाँव में बैठ गया।

एक तो पेड के पत्ते पहले ही. चौडे बहत थे ऊपर से पत्तियों भी इतनी मोटी कि सूर्यदेव के तीक्ष्ण बाण भी उसे भेद नहीं पा रहे थे।

चरवाहे को उस पेड़ की छाँव में ऐसा सुकून मिला, जैसा पहले कभी नहीं मिला था।

थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गयी।

चरवाहा अब रोज वहाँ आने लगा। अब वह उसे बेंत से नहीं मारता था, अब वही बेकार सा पेड़ उसे अच्छा लगने लगा था।

चरवाहा जब तक पेड़ की छाँव में रहता, गर्मी से बचा रहता पर जैसे ही वह घर जाने के लिये, पेड़ की छाँव के दायरे से बाहर निकलता, गर्मी उसे झुलसा डालती।

एक दिन उसे न जाने क्या सूझा कि घर जाते समय, जमीन पर पड़ा, पेड़ का एक पत्ता patta / leaf उसने अपने सर पर रख लिया।

उसे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पत्ते की मोटाई ने, न केवल घण्टों बल्कि पूरे दिन उसके सर को ठंडा रखा।

अगले दिन, घर जाने का समय आया तो चरवाहे ने सोचा कि यदि वह पेड़ का एक पत्ता अपने सर पर बाँध ले तो उसे आज भी गर्मी से राहत मिल सकती है।
उसने जमीन पर देखा तो आज उसे जमीन पर कोई पत्ता नज़र नहीं आया।

चरवाहा थोड़ा सकुचाता हुआ पेड़ के पास पहुंचा और धीमे स्वर में बोला, “पेड़ ‘भाई’, तुम्हारे पास तो भगवान की कृपा से बहुत सारे पत्ते हैं, अगर तुम मुझे अपना एक पत्ता दे दो तो मैं गर्मी के इस भीषण ताप को सहन कर पाऊँगा। ”

पेड़ बड़ा दयालू था। हालाँकि उसे पता था कि जब उसके बदन से पत्ते को अलग किया जायेगा तो उसे बहुत दर्द होगा। पर उसने सोचा कि यदि मेरे थोड़ा सा कष्ट झेल लेने से इस चरवाहे का कष्ट दूर हो सकता है तो इसमें हर्ज ही क्या है?

उसने चरवाहे को एक पत्ता तोड़ने की इजाजत दे दी।

चरवाहे ने वह पत्ता, अपने सर पर बाँध लिया। पत्ता इतना चौड़ा था कि उसने, टोपी की तरह, चरवाहे का पूरा सर ढाँप लिया।

चरवाहा खुशी-खुशी अपने गाँव पहुँच गया।अगले दिन चरवाहा जंगल में पहुंचा और पेड़ से बोला, “भाई तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद। तुम्हारे एक पत्ते ने मुझे कल गर्मी के कोप से बचा लिया। ”

पेड़ यह सुनकर बहुत खुश हुआ। चलने के समय, चरवाहे ने फ़िर से, पेड़ से एक पत्ते की माँग की… सहृदय पेड़ ने फिर से अपने कष्ट की परवाह न करते हुए, पत्ता लेने की अनुमति दे दी।

अब चरवाहे ने यह रोज का क्रम ही बना लिया। धूप कम हो या अधिक, चलते समय वह पेड़ से एक पत्ता माँग ही लेता।

Virksh devta part 1

और कुछ समय बाद तो चरवाहे ने पेड़ को धन्यवाद देना भी बन्द कर दिया। अब वह इसे अपना अधिकार और पेड़ का कर्तव्य मानने लगा। वह सीधे पेड़ से कहता, “अच्छा अब मुझे जाना है सो मैं तुम्हारा एक पत्ता ले रहा हूँ। ”

पेड़ कुछ न कहता, बस अपना बदन खामोशी से नुचवा लेता।

धीरे-धीरे, यह बात गाँववालों की भी नज़र में आने लगी कि जहाँ एक ओर, सारे गाँववाले गर्मी की मार से बेहाल रहते, वहीं चरवाहा, एक पत्ता, सर पर बाँधकर, आराम से दिन भर घूमता रहता।

गाँववालों ने, पत्ते का भेद, चरवाहे से पूछा।

पहले-पहल तो चरवाहे ने कुछ भी बताने से मना कर दिया पर फिर गाँववालों के बार-बार पूछने पर, आखिर उसने पेड़ के बारे में गाँववालों को बता ही दिया।

गाँववालों ने चरवाहे से कहा कि वह उनको भी पेड़ के पास ले चले।
चरवाहे ने कहा “मैं तुम्हें पेड़ के पास तो ले चलूँगा पर पहले वादा करो तुम उससे कुछ मांगोगे नहीं।” गाँववालों ने कहा, “जैसा तुम कह रहे हो वैसा ही होगा बस एक बार हमें वहाँ ले चलो।”

चरवाहा गाँववालों को लेकर पेड़ के पास पहुँचा।

गाँववालों ने जब उस पेड़ को देखा तो वे चौंक गये। यह तो वही ‘ बेडौल’, ‘ बदसूरत’, ‘ कमज़ोर’ और ‘नाकारा’ पेड़ था, जो अब घने पत्तों से लहलहाता, विशाल वृक्ष बन गया था।

गाँववालों के मन में अब उन पत्तों के लिये लालच जाग उठा था। चरवाहे से किया वादा अब उन्हें याद नहीं था। उन्होंने धीरे से फुसफुसाकर, चरवाहे के कान में कहा कि वह उनके लिये भी एक-एक पत्ता
माँग ले।

पेड़ ने उनकी फुसफुसाहट सुन ली। वह गाँववालों से बोला, “भाईयों मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ! जैसे आप इंसानों को जीने के लिएभोजन और हवा की जरूरत होती है वैसे ही पेड़ को भी जिंदा रहने और फलने-फूलने के लिये, भोजन और साँस लेने के लिये वायु की आवश्यकता होती है।”

“और जैसे आपको अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिये पैसे की जरूरत होती है, वैसे ही पेड़ को इन सबके लिये पत्तों की जरूरत होती है।”

“पेड़ की पत्तियाँ ही, पेड़ को, आवश्यक भोजन और साँस लेने के लिये वायु उपलब्ध कराती हैं। ये पत्ते ही पेड़ की पूंजी, उसका जीवन, उसका सबकुछ हैं। यदि पत्ते न हों तो पेड़ भी जीवित नहीं रह सकता। ”

कुछ रुककर पेड़ आगे बोला…

“दूसरों की मदद करना बुरा नहीं है। यदि प्रभु ने तुम्हें, तुम्हारी आवश्यकताओं से अधिक धन दिया है तो ऐसे में दूसरों की मदद के लिये यदि तुम अपनी संचित पूँजी का एक छोटा सा हिस्सा, दान में दे भी दो तो शायद अधिक फर्क नहीं पड़ेगा पर यदि तुम अपने खुद के लिये आवश्यक सारी पूँजी को ही दान देने लगो तो कुछ समय बाद, तुम्हारा खुद का निर्वहन कठिन हो जाएगा।”

अब आप ही सोचो कि यदि मैं अपनी सामर्थ्य से ज्यादा पत्ते तुम्हें दे दूंगा तो मेरा, स्वयं का जीवन निर्वाह बहुत कठिन हो जाएगा।”

यह कहते हुए पेड़ अपने पत्तों को सिकोड़ने का प्रयास करने लगा।

गाँववालों ने जब यह देखा तो सब एकदम से धरती पर नतमस्तक होकर बोले, “हे वृक्ष ‘देवता’ ” हम आपके बच्चों के समान हैं। जीवन-यापन के लिये, हम सभी को अपने घरों से बाहर निकलना ही पड़ता है। इस भीषण गर्मी को हम और हमारे बच्चे भला कैसे सह पायेंगे?”

“आपको तो पता ही है कि हर वर्ष, गर्मी की वजह से न जाने कितनी जानें चली जाती है। यदि आप अपना, शीतल-स्नेहछाँव भरा हाथ हमारे ऊपर रख दें तो हम और हमारे परिवार, जीवन भर आपका उपकार नहीं भूलेंगे।”

पेड़ ने एक नज़र, नीचे दण्डवत पड़े लोगों को देखा। उनमें से ऐसे बहुत से लोगों को वह पहचानता था जो अक्सर, बेडौल और बेकार बताकर उसका तिरस्कार किया करते थे। उस भीड़ में ऐसे बहुत से चरवाहे भी शामिल थे, जिनकी बेंतों की मार, पेड़ ने बिना किसी दोष के, न जाने कितनी बार सही भी।

पेड़ ने एक गहरी साँस ली और सोचा कि आज वही °मैँ”, आज इन लोगों का “वृक्ष देवता” Tree “God” बन गया हूं?!!

पर आखिर में पेड़ का मन पसीज गया। उसने अपने पत्ते खोल दिये और गाँववालों को एक-एक पत्ता तोड लेने की अनुमति दे दी।

गांववालों ने उसके पत्ते तोड़े और वापस चल दिये।

…हाँ, वापस चलते समय, गाँववाले सर झुकाकर “वृक्ष-देवता” का आभार व्यक्त करना न भूले।

अब भला एक पत्ती कितने दिन चलनी थी? एक दिन, दो दिन या अधिक से अधिक तीन दिन… अब क्या हो.?

गांववाले फिर पहुंचे पेड़ के पास। इस बार हाथों में पानी की बाल्टियों और पूजा के थाल लिये।

जाते ही. सब गाँववाले, पहले की ही तरह दण्डवत हो गये। इससे पहले कि पेड़ कुछ बोल पाये, पानी से उसकी जड़े सींच दी गईं। उसके आसपास का सारा कचरा साफ़ कर दिया गया। कलावा-रोली के साथ उसका पूजन किया गया और फिर की गई वही पहले वाली याचना…

पेड़ बेचारा क्या कहता, दिल तो उसका दयालू ही था ना..

अब हर दो-तीन दिन में गाँववाले आ धमकते। बार-बार उसका गुणगान करते, उसका धन्यवाद करते कि उसकी वजह से ही उनका परिवार धूप से सलामत है… और जाते-जाते फिर से उसे नोंच डालते।

पेड़ कष्ट से कूखता-कराहता पर यह सोचकर कुछ न बोलता कि कही गाँववालों के दिल को कष्ट न हो।

धीरे-धीरे, गाँववालों ने टोपी, पगड़ी खरीदनी ही बंद कर दी।

सोचते, काहे को फालतू में पैसे खर्चने? जब जरूरत होगी तो यो पेड तो है ही ना!

पेड़ को भी, पत्तियों की जरूरत है या पेड़ को भी पाते तोडते समय दर्द होता होगा, यह सोचने की भला किसको फुर्सत थी? बस जब जरूरत
होती. उस समय पेड़… नहीं-नहीं.. “वृक्ष-देवता” की याद आ जाती और पहुंच जाते उनका “आभार” प्रकट करने।

आभार या याचना?? या आभार के खोल में लिपटी याचना.?

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