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शनिवार व्रत Saturday fast
व्रत प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा रहे हैं। व्रत का अर्थ है किसी चीज का प्रण करना या प्रतिज्ञा करना। जब कभी किसी भी देवी या देवता की प्रसन्नता के हेतु कोई व्रत vrat किया जाता है तो उस व्रत की समय-अवधि में उन विशेष देवी या देवताओं से प्रार्थना की जाती है। उनके महात्म्य का वर्णन करने के लिए कथा कही जाती है और उस समय-अवधि में प्रायः किसी एक वस्तु जैसे नमक, खटाई अथवा अन्न आदि का त्याग किया जाता है। इसके पीछे यह धारणा है की त्याग से ही भक्ति भावना प्रबल होती है।


यहां आपको अपने ज्ञान-अनुसार यथा योग्य जानकारी प्रदान करने का प्रयास किया जा रहा है परंतु फिर भी आप किसी अन्य, विषय के जानकार, धर्म तथा कर्मकांड के ज्ञानी जन की सलाह अवश्य ले लें जिससे किसी भी प्रकार की भूल चूक की संभावना ना रहे।


शनिवार व्रत (Saturday fast) का प्रयोजन और महत्व
ऐसी प्रचलित धारणा है की शनि shani महाराज गरीब जन दास वर्ग, रोगियों और वृद्धों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि शनि महाराज प्रसन्न हों तो रोगों से मुक्ति, दासता से मुक्ति जैसे उत्तम फल प्राप्त होते हैं परंतु यदि शनि महाराज रुष्ट हो जाएं तो इसी संबंध में विपरीत फल प्राप्त होते हैं।


ज्योतिषीय दृष्टि से जिन जातकों की शनि की साढ़ेसाती sadhe sati या ढैय्या चल रही हो अथवा कुंडली में शनि दोष हो, उनके लिए इस व्रत की अनुशंसा की जाती है। लोग सामान्यतः शनि महाराज से डरते हैं पर शनि महाराज के विषय में यह प्रसिद्ध है कि यह जो देते हैं वह लंबे समय के लिए देते हैं। अतः जब यह शुभ फल देने पर आते हैं तो आदमी की किस्मत पलट देते हैं। यह व्रत शनि( shani vrat ) महाराज को प्रसन्न करने हेतु ही किया जाता है।


पूजन विधि तथा संबंधित विधान (shani vrat poojan vidhi )
मान्यता के अनुसार यह व्रत शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार से प्रारंभ किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जिस दिन “मूल” नक्षत्र (mool nakshatra) पड़े ऐसे शनिवार से प्रारंभ कर लगातार सात शनिवार तक अथवा पुरोहित अथवा ज्योतिषी की सलाह अनुसार शनिदेव की पूजा व्रत का प्रावधान कहा गया है।

  1. प्रातः काल शौच आदि से निवृत्त होकर स्नान करें। उसके पश्चात लकड़ी की एक पटरी पर काला कपड़ा बिछाकर उस पर शनिदेव की प्रतिमा या तस्वीर को स्थापित करें।
  2. उसके पश्चात शनिदेव के समक्ष एक सुपारी रख दें और उनके दोनों ओर घी तथा तेल के दीपक जलाएं और शनि देव को पंचामृत से स्नान करा कर इत्र लगाएं।
  3. एक तांबे के लोटे में दूध, जल और शक्कर मिलाएं। उस जल को पीपल के पेड़ की जड़ में अर्पित करें, ध्यान रखें कि जल अर्पण करते समय आपका मुंह पश्चिम दिशा की ओर हो और जल इधर-उधर ना छलके।
  4. इस दिन नमक का त्याग व काले बैंगनी अथवा नीले वस्त्र धारण करने का परामर्श दिया जाता है। यदि हो सके तो दिन में गरीब अथवा असहाय व्यक्तियों को दान दे वृद्धों की सेवा करें और आशीर्वाद लें। यह माना जाता है कि शनिवार के व्रत से राहू महाराज के दोषों का भी शमन होता है। दिन में यथासंभव शनि मंत्र का जाप करें।
  5. सूर्यास्त के लगभग 2 घंटे पश्चात शनि महाराज को याद कर भोजन ग्रहण करें। इसके अतिरिक्त तेल में तली इमरती का भोग लगाएं और कुत्तों में वितरित करें।
  6. अंतिम व्रत के पश्चात उचित हवन आदि के साथ शनि व्रत का समापन करें।

    शनिवार व्रत कथा (Saturday fast Story)
    एक बार स्वर्ग लोक में इस बात को लेकर विवाद हो गया कि नवग्रहों में सबसे बड़ा और श्रेष्ठ ग्रह कौन? सभी ग्रहों के स्वामी देव निर्णय के लिए इंद्रदेव के पास पहुंचे और अपनी श्रेष्ठता के बारे में निर्णय करने के लिए कहा।

    यह सुनकर इंद्रदेव बहुत परेशान हो गए उनकी समझ के अनुसार किसी भी देवता को कम अथवा अधिक श्रेष्ठ कहना उचित नहीं था। ऐसे में इंद्रदेव ने सभी देवों को पृथ्वी पर उपस्थित उज्जैन राज्य के राजा विक्रमादित्य ( Raja Vikramaditya )के पास चलने की सलाह दी। उनके अनुसार पूरे भूमंडल में उनसे अधिक न्याय-प्रिय और न्याय-विद कोई नहीं था।
    सभी देवता जब राजा विक्रमादित्य के दरबार में अपनी समस्या लेकर पहुंचे तो राजा विक्रमादित्य इस सोच में पड़ गए कि सबकी श्रेष्ठता का निर्णय आखिर करें तो किस आधार पर क्योंकि सभी देवों में कुछ ना कुछ विशिष्ट गुण था जो उन्हें श्रेष्ठ बनाता था । पर आखिर निर्णय तो करना ही था।

    अंत में राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा । उन्होंने दरबार में नौ अलग-अलग धातुओं सोना, चांदी, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाए । तत्पश्चात उन्होंने सभी देशों से अपना अपना आसन ग्रहण करने का आग्रह किया। उन्होंने कहा जो सबसे जिस क्रम में आसन पर बैठेगा उसी के अनुरूप उसकी श्रेष्ठता निश्चित होगी । सभी ने अपने अपने अनुसार आसन ग्रहण कर लिया। इस क्रम में शनि महाराज (Shani Maharaj ) सबसे अंत में लोहे के सिंहासन पर विराजमान हुए।

    अब क्योंकि लोहे का सिंहासन सबसे अंत में रखा था तो पूर्व घोषणा के अनुसार शनिदेव ( Shani dev ) सबसे अंत में सिंहासन ग्रहण करने के कारण सबसे छोटे कहलाए।

    शनि महाराज को लगा कि राजा विक्रमादित्य ने जानबूझकर ऐसा किया है यह सोचकर शनि महाराज रोष में भर उठे और उन्होंने राजा से कहा “हे राजन! तू मुझे जानता नहीं है मैं तेरा सर्वनाश कर सकता हूं। सूर्य एक राशि में 1 महीना, चंद्र एक राशि में सवा 2 दिन, मंगल डेढ़ महीना, बृहस्पति 13 महीने तथा बुद्ध व शुक्र एक राशि में एक एक महीना विचरण करते हैं; पर मैं ढाई से लेकर साढ़े 7 साल तक अपना प्रभाव दिखा सकता हूं।

    बड़ों बड़ों का विनाश मैंने किया है। जब श्री राम जी का वनवास हुआ तब मेरी ही साढ़ेसाती थी। जब रावण की साढ़ेसाती शुरू हुई तो उसे अपना राज्य गँवा कर परास्त होना पड़ा। अब तू भी मेरे क्रोध से बच नहीं सकता।“

    तत्पश्चात अन्य सभी देवता तो खुशी-खुशी परंतु शनि देव क्रोधित होकर वहां से विदा हुए।
    समय बीता और कालचक्र के अनुसार राजा की साढ़ेसाती प्रारंभ हुई। उस समय शनि देव घोड़ों के सौदागर के रूप में राजा के पास पहुंचे। उनके पास उत्तम प्रजाति के बहुत से घोड़े थे।

    जब राजा को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने अश्वपालक को घोड़े खरीदने के लिए कहा और स्वयं के लिए भी एक बहुत शानदार, शक्तिशाली घोड़ा चुन लिया।

    घोड़े की परख करने के लिए राजा घोड़े पर सवार हो गए। उनके सवार होते ही घोड़ा अत्यंत तेज गति से भाग चला। तेजी से दौड़ता घोड़ा जंगल में पहुंचा और एक जगह राजा को गिराकर गायब हो गया। आखिर थी तो माया शनिदेव की ही…

    राजा ने वापस लौटने के लिए बहुत प्रयत्न किये पर कोई मार्ग नहीं ढूंढ पाए। एक समय राजा को बहुत तेज भूख और प्यास लगने लगी आस पास कोई नहीं था तभी अचानक उन्हें एक चरवाहा मिला। चरवाहे ने राजा को पानी पिलाया। प्रसन्न और संतुष्ट होकर राजा ने चरवाहे को अपनी मूल्यवान अंगूठी भेंट कर दी और चरवाहे से रास्ता पूछ, पास के एक नगर में जा पहुंचे। राजा विश्राम करने के लिए एक सेठ की दुकान पर बैठ गए सेठ के पूछने पर राजा ने अपने परिचय के रूप में बताया कि वह उज्जैनी नगरी से आए हैं। सेठ ने इस बात का ध्यान किया कि राजा के उसके दुकान पर बैठने के पश्चात सेठ की बहुत अच्छी बिक्री हुई।

    राजा को भाग्यवान मानकर सेठ उन्हें अपने घर ले गया और भोजन कराया। तत्पश्चात सेठ उस कमरे में राजा को छोड़कर कुछ देर के लिए बाहर चला गया। उस कमरे में एक खूंटी थी जिस पर एक कीमती हार लटक रहा था।

    तभी राजा ने देखा कि उनके देखते देखते ही खूंटी पूरा हार निगल गई। आखिर माया तो शनिदेव की ही थी ना…

    सेठ जब वापस लौटा तो हार को ना पाकर क्रोधित हो उठा। उसे लगा कि क्योंकि कमरे में राजा के अलावा कोई था ही नहीं इसलिए निश्चय ही चोरी राजा ने ही की है।

    उसने शिकायत कर राजा को नगर कोतवाल से पकड़वा दिया। जब राजा विक्रमादित्य को उस देश के राजा के समक्ष पेश किया गया तो राजा विक्रमादित्य ने कहा की “हार को तो खूंटी निगल गई।“

    राजा यह उत्तर सुनकर क्रोधित हो उठा और उसने राजा विक्रमादित्य के हाथ पैर कटवा कर नगर में के बाहर फिंकवा दिया।

    कुछ समय बाद वहां से एक तेली गुजर रहा था। उसे राजा विक्रमादित्य पर दया आ गई और वह उन्हें अपने साथ अपने कोल्हू पर ले गया।

    राजा वहां अपनी आवाज से हुंकार हुंकार कर बैलों को चलाते रहते। इस प्रकार तेली का भी काम बन गया और राजा को भी नया ठिकाना मिल गया।

    इसी तरह समय गुजरता रहा और शनि महाराज की साढ़ेसाती पूरी हो गई।

    राजा विक्रमादित्य गायन कला में अत्यंत निपुण थे। एक बार राजा, रात के समय, राग मेघ-मल्हार गा रहे थे कि अचानक उस राज्य की राजकुमारी मोहिनी उस ओर से गुजरी। उसने जब इतना मधुर, राग मेघ-मल्हार सुना तो स्वयं को रोक नहीं पाई और अपनी दासी से उस गायक को बुलाकर लाने के लिए कहा।

    दासी ने लौटकर राजकुमारी को बताया की राग को गाने वाला दिव्यांग है पर राजकुमारी उसी गायक से विवाह करने का प्रण कर चुकी थी। राजा ने राजकुमारी को बहुत समझाया पर वह अपने प्रण पर अडिग रही।

    अंत में हार कर राजा ने तेली को बुला लिया और विवाह की तैयारी करने का आदेश दिया।
    अंततः दोनों का विवाह संपन्न हुआ और दोनों तेली के घर में रहने लगे। एक रात स्वप्न में शनि देव ने राजा को दर्शन दिए और कहा “ तुमने मेरा क्रोध देख लिया है। यह सब मेरे अपमान का ही दंड है ।“

    राजा विक्रमादित्य ने कहा कि “हे शनिदेव, जैसा दुख आपने मुझे दिया है वैसा किसी और को नहीं देना।“

    शनिदेव राजा की ओर देखकर बोले कि “हे राजन मैं तुम्हारी इस प्रार्थना को स्वीकार करता हूं! आज के पश्चात जो कोई व्यक्ति मेरी पूजा करेगा तथा शनिवार का व्रत कर मेरी कथा सुनेगा मैं उस पर सदा अपनी कृपा बनाए रखूंगा और दुखों से मुक्त रखूंगा।“ यह कहकर शनिदेव ने राजा के हाथ पैर भी उन्हें वापस कर दिए।

    अगले दिन प्रातः जब राजा विक्रमादित्य उठे तो यह देखकर आश्चर्य से भर उठे किस वास्तव में उनके हाथ पैर वापस आ गए थे। राजकुमारी भी यह देखकर आनंद से भर उठी। इसके पश्चात राजा ने सबको अपना सही परिचय देते हुए बताया कि वह उज्जैन के प्रख्यात नरेश राजा विक्रमादित्य हैं। यह जानकर सभी लोग अत्यंत आश्चर्यचकित हो उठे। उधर सेठ को भी जब यह जानकारी प्राप्त हुई तो वह भागा भागा राजा के पास आया और अपने किये की क्षमा मांगने लगा। राजा ने सेठ से कहा कि इसमें उसका कोई दोष नहीं था, यह सब शनिदेव के क्रोध की माया ही थी।

    सेठ बहुत मनुहार करके राजा को फिर से अपने घर भोजन के लिए ले गया। राजा विक्रमादित्य ने देखा कि वही खूंटी जो पहले हार निगल गई थी उसने हार वापस उगलना शुरू कर दिया।

    अब उसी सेठ, जिसने राजा पर चोरी का इल्जाम लगा कर उनके हाथ पैर कटवा दिए थे उसी सेठ ने राजा से, अपनी पुत्री श्रीकंवरी का विवाह स्वीकार करने का आग्रह किया। राजा ने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। राजा विक्रमादित्य शनिदेव के प्रभाव को भलीभांति समझ गए।

    राजा वापस अपने नगर उज्जैन को लौट गए। राज्य की सीमा पर सभी नागरिकों ने उनके आने का स्वागत किया और उनके आगमन का उत्सव मनाया।

    राजा विक्रमादित्य ने घोषणा की कि “मैं शनिदेव की श्रेष्ठता को ना समझ सका परंतु सत्य में शनिदेव ही सब देवों में श्रेष्ठ हैं। अतः अब प्रत्येक नागरिक शनिवार को उनका व्रत (Saturday fast) करे और कथा सुने जिससे सभी का कल्याण होगा।

    इस घोषणा से शनिदेव अत्यंत प्रसन्न हो गए और उसके पश्चात आज तक जो भी मनुष्य शनि देव की पूजा व व्रत कर, उनकी इस कथा को सुनता-सुनाता है, अपने वचन से बंधे हुए, शनिदेव उस पर अपनी अनुकंपा अवश्य ही बरसाते हैं।

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