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आज फिर अंधड़ चला, पेड़ की डाली गयी,
वक्त ने जो भी थी मुमकिन, चाल हर टेढ़ी चली,
बाखुदा जुल्मी की हर चाल तिरछी, पर मगर खाली गयी।
वक्त कहता , टूट जा…बिखर भी जा,
पर मेरे होठों से न, मेरी हंसी मतवाली गयी |

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